मैं भारत हूं
मुझे वेदों के विचारों ने जन्माया है मेरे परिचय के लिए इतनही पर्याप्त है कि अमृतस्वरूप गंगा मेरी मां है।
मै भारत हूं मै ऋषियों के आश्रम में बड़ा हुआ हूं युगों पुरुषों की ऊंगली थामके चला हूं और संघर्ष कि प्रचंड अग्नि में जला हूं
मेरे इतिहास का पहला पन्ना तब लिखा गया था,। जब मनुष्य ने समय को दिन और तारीख़ में बांटना नहीं सीखा था,। दस हजार वर्ष पहले मेरा आकार बढना शुरू हुआ लेकिन इतना पुराना इतिहास सिद्ध करने के लिए आज मेरे पास साक्ष नहीं है।
लोग सवाल उठाते हैं कि सिंधू घटी के सभ्यता को सिर्फ ३४०० साल ही हुए हैं फिर मै दस हजार वर्षों के इतिहास का दावा क्यों कर रहा हूं? मै क्या उत्तर दू उन्ह इतिहासकारों को जो विट पत्थरों के ग्वाई के बिना गूंगे हो जाते हैं। ३४०० साल पहले के अवशेष तो उन्हें दिखते है, लेकिन ५००० वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में शस्त्र त्याग चुके अर्जुन को गीता का ज्ञान देनेवाले कृष्ण नहीं दिखाए देते? ७००० साल पहले शरयु के तट पर सूरज को नमन करते हुए श्रीराम नहीं दिखाए देते? और ८००० वर्ष पहले रची गई ऋग्वेद नहीं दिखाई देती?
आज मेरे मान चिह्न पर छबी है, मै हमेशा के तरह ऐसा नहीं था, अनेकों टुकडों में बटा हुआ, जनपद और महाजनपद में बटा हुआ था, फिर एक दिन तक्षशिला में जन्मे मेरे पुत्र ने अपनी शिखा खोल दी और यही से मेरे अखंड राष्ट्र बनने का मार्ग खुल गया। खंड खंड में बिखरे हुए मेरे अंग। एक ध्वज के अंदर सिमट आए। आज की भौगोलिक भाषा में कहू तो। चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने मुझे बिहार से बलूचिस्तान और कश्मीर से कंदाहर तक फैल दिया।
मै अपनी भुजाओं के विस्तार देखकर प्रसन्न था,। लेकिन अशोक की वीरता अपने दादा चन्द्रगुप्त के साम्राज्य को और आगे बढ़ाने के लिए प्रतिज्ञा पत किए। अशोक ने मेरी सीमाएं तक्षशिला से ईरान तक खींच दी मेरा विस्तार पूरे विश्व को अचंबित कर रहा था भौगोलिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में एक तरफ मेरे हाथों में तलवारें लेहेरा रही थी और दूसरी तरफ मेरे गले से बुद्ध और महावीर की वाणी गुंज रही थी। सहिया बित रही थी, मै समय के सियताल पर कभी दौड़ा, कभी चला, कभी रंगा लेकिन रुका कभी नहीं।
मुझे कृष्ण के वचन हमेशा याद रहें,। “प्रथम वे दक्षिणे हस्ते । जयों में संव्याहित:।। यदि मै सीधे हात से कर्म करूंगा तो मेरे दूसरे हात में विजय अवश्य होगी।
कर्मयोग की सिद्धांत पर चलता हुआ मै वैभव और संपदा के शिखर पर जा पहुंचा। मेरी चमक आसपास देशों में जाके पहुंची। मेसिडोनिया का वो राजा सिकंदर महान जिसकी सेनाएं विश्वविजय पर निकली थी वो पर्शिया और कंदहार छिलता हुआ मेरी सीमा में दाखल हो गया। सिकंदर दुनिया का बहोद बड़ा भूभाग जीत चुका था और मुझे जितने ही वाला था लेकिन मेरा वीर पुत्र पंजाब का राजा पोरस ने उन्ह पागल घोड़ों के सामने दीवार बनकर खड़ा हो गया। विदेशी इतिहास कारों ने लिखा कि, पोरस हारा, सिकंदर विजयी हुआ। लेकिन ऑफकोस मेरे इतिहासकारों ने इस झूठ को कभी चुनौती नहीं दी। कभी पूछा नहीं विदेशी इतिहास कारों से अगर सिकंदर जीता तो खाली हाथ भारत से वापस क्यों गया? सच ये है कि, साम्राज्य का भूका वो सिकंदर मेरे बदन का एक भी टुकड़ा मास भी जीत नहीं पाया। मेरे पोरस ने उसके सपने तोड़ डाले, ऐसा हराया कि उसका आत्मविश्वास चकनाचूर हो गया और मायदेश में पहुंचने से पहले ही वो आदिवासियों के हमले में मारा गया। वो कहानी तो सबने सुनी होगी कि, सिकंदर ने मरते समय कहा था कि, मेरे हाथ मेरे कब्र से बाहर रखे जाए ताकि संसार को बता चलना चाहिए कि सिकंदर भी दुनिया से खाली हाथ गया। लेकिन किसीने ये नहीं पूछा कि, ये हाथ किसने खाली किए थे? मैंने किए थे, मेरे पोरस ने किए थे।
पर सिकंदर आखिरी नहीं था। अरब, अफगान, तुर्क, तैमूर और मंगोली भी घोड़ों पर चढ़ते दौड़ते हुए आए मेरे मंदिरों का सोना चुराके गए, मेरे ग्रंथ जला दिए, मेरा इतिहास चिणभिन्न कर दिया।
अंकिनात: घाव लगे मेरे बदन पर, लेकिन विश्व बंधुत्व का आदर्श छा रहा मेरे मन पर। ये परदेशी यों की चोट खाता रहा, अतिथि देवो भव: दोहोरता रहा। मेरी यही शान्तिप्रियता सात समुंदर पार चिआए हुए अंग्रेजी सौदागीरी के लिए वरदान बन गई। मेरे राजाओं के दरबार में जमीन पर नाक रगड़ने वाले ये घोड़े आज अचानक राजसत्ता ओं के स्वामी बन बैठे। रानी विक्टोरिया के भेजी हुई पीढ़ियों ने मुझे ऐसे चक्कर लिया कि, मेरी रक्त शिराए पीड़ा से तराक उठी। शेकड़ो वर्षों तक विश्वासघात के छुएं में मेरा दम घुटा कि मुझे याद भी नहीं आता कितनी बार मेरे कालिमा का हलन हुआ और कितनी बार मेरा स्वाभिमान लूटा? लेकिन मैंने भी ऐसे लाल पैदा किए थे जो रंग दे बसन्ती गाकर मेरे लिए फांसी के दक्ते पर झूल गए।
मुझे याद आती हैं लाहौर सेंट्रल जेल! मेरा बेटा भगत नजरकैद है, फांसी का हुकुम सुनाया जा चुका है। तारीख नजकिद आती जा रही है। अंग्रेज़ अधिकारी रोबर्ट और पालकर उससे मिलने आते है। कहेते है – माफी मांग लो भगत जान बच जाएगी। चिठ्ठी लिख दो ब्रिटिश सरकार को। कह दो कि, तुम अपने किए पर शर्मिंदा हो और हम भूल जाएंगे कि तुमने असेम्बली हॉल में बॉम्ब फेका था। सांडर्स कि हत्या की थी। भगत ने बात मानकर अंग्रेज़ सरकार को चिट्ठी लिखी ही। क्या लिखा था उस चिट्ठी में? भगत ने लिखा ” मै ब्रिटिश सरकार से अपील करता हूं कि मुझे फांसी नहीं दी जाए। फांसी अपराधियों को दी जाती है और मै एक क्रान्तिकारी हूं। भारत मां का सिपाई हूं। मुझे भरी चौहरी पर गोली मर दी जाए। ये युद्ध का मैदान है। ये गोली से मरने ही सिपाई की शान है। बेगलत अंग्रेज़ सरकार एक देशभक्त कि जरासी ख्वाहिश भी पूरी नहीं कर पाया। पहुंच दिया मेरे भगत को फांसी के तख्ते पर। भगत! मेरा भगत! उसने सोचा, मुझे वीरगती चाहिए गोली नहीं तो फांसी से ही। भगत फांसी का फंदा ऐसे दीवानगी से चूमने लगा जैसे मेंहदी से सजी हुई अपनी दुल्हन के हाथ चूम रहा हो। ” ये दुल्हन, मै राख बनकर सतलज नदी पर बह गया पूछ मत तेरी जुदाई मेरे दिल पे कैसे सैहे गया, ये शराफत की खुशी पर जाते जाते दुःख भी है हाए आजादी तेरा घूंघट उठाना रह गया। ” ये था मेरा बेटा भगत!!
और मेरी बेटी, जो दूध पीते बच्चे को पीट पर बांधकर अंग्रेजो से क्या लड़ी, उनके लाल वर्दी ओं के धागे खोल दिए। लक्ष्मीबाई!!!!!
एक और मेरा बेटा, अल्फ़स पार्क में एक पिस्तूल लिए अनगनित अंग्रेजी रायफल्स से लड़ गया, जब पिस्तूल में आखिरी गोली बची तो वन्दे मातरम् बोलकर मेरे चरणों पर बली चड़ गया, २५ वर्ष के भरी जवानी में आजाद मुझे छोड गया।
जो हाथ मेरी ओर बढ़े वो मेरे वीरों ने काटकर फ़ेक दिए। जो आंखे मुजपर उठी थी वो बुज गई हमेशा के लिए।
मै भारत हूं… बलिदानियों के रक्त से भीगी हुई मेरी बदिया है, मेरे माथे पर ७६ वा स्वतंत्रता का सूरज चमकने वाला है। क्योंकि मेरे सीने में शहीदों की समाधियां है। मै भारत हूं!!!!!!! मै भारत हूं!!!!!!!!!